Thursday, January 13, 2011

मृग कस्तूरी

किसी के संग के बिना
कितनी अधूरी सी लगती है
ये ज़िन्दगी कभी एक मृग 
कस्तूरी सी लगती है 
:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(
थामे खुद का हाथ
करते खुद से बात
भागते एक शहर
से दुसरे शहर
ये कितनी
गैरज़रूरी सी लगती है
ये ज़िन्दगी कभी एक मृग
कस्तूरी सी लगती है
:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(
ऊपर और ऊपर
उससे , सबसे
जाने किस किस से
इसी फ़िक्र में
ये कितनी जिहजुरी
सी लगती है
ये ज़िन्दगी कभी एक मृग

कस्तूरी सी लगती है
:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(

5 comments:

  1. 'ये जिन्दगी कभी एक

    मृग कस्तूरी सी लगती है '

    कितनी लाजवाब पंक्ति है .....पूरी रचना अच्छी लगी |

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  2. सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !

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  3. आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं

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  4. Anonymous8:50 AM

    बहुत सुंदर रचना लिखी है राहुल जी - हार्दिक बधाई

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