Monday, February 15, 2010

तुम..

ये शहर सूना सूना सा था
और मैं कही रह रहा कोने में था
अंजान था ये शहर
पथरो सी नज़र,पहने
लोग दिखते थे पर, नज़र आते नहीं थे

आवाज़े तो होती बहुत थी
आवाज़े ही होती बहुत थी
कोई सुर न ताल, न कोई शब्द
बाते तो होती बहुत थी
पर बाते ही होती बहुत थी

क्या मैं ही शहर था वैसा
ये मेरे अन्दर ही, वो शहर था
जल रहा कभी एक बूंद पानी के बिना
क्या मैं ही वो बेदर्द, दोपहर था

एक दिन तुम मिली
और शयद मैं भी खुद से मिला
अजीब लगता था की अचानक
आपने परछाइयो से हाथ मिला रहे थे
पता नहीं तुमपे, या खुद पे
मुस्कुरा रहे थे

हाथ थमा था जिस दिन तुमने
लगता था, इस शहर को सहारे मिल गए हो
यु तो मेरे हाथ पास ही थे मेरे
पर शायद लगा को, मेरे हाथ दुबारा मिल गए हो

अच्छा लगता था करना बाते तुमसे
बाते जो तुमसे होती रहती थी
सिर्फ बाते कहा थी वो
बातो बातो में अक्सर
मेरे दिल से मेरी, मुलाकाते भी होती रहती थी

अक्सर तेरे नजरो में मुझको
अपना सारा शहर दीखता था
अजीब था शहर,पता नहीं कैसे
सुनहरी शाम जैसा, वो दोपहर दीखता था

अब सूना नहीं लगता मुझे कभी भी
हर कोना अपना अपना सा लगता है
तेरी नजरो में अक्सर, देख लेता हु अक्सर
वो पुराना शहर, सपना सा लगता हैं.....

नक़ाब