किसी के संग के बिना
कितनी अधूरी सी लगती है
ये ज़िन्दगी कभी एक मृग
कस्तूरी सी लगती है
:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(
थामे खुद का हाथ
करते खुद से बात
भागते एक शहर
से दुसरे शहर
ये कितनी
गैरज़रूरी सी लगती है
ये ज़िन्दगी कभी एक मृग
कस्तूरी सी लगती है
:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(
ऊपर और ऊपर
उससे , सबसे
जाने किस किस से
इसी फ़िक्र में
ये कितनी जिहजुरी
सी लगती है
ये ज़िन्दगी कभी एक मृग
कस्तूरी सी लगती है
:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(:-(
शब्दों की गहराई अचूक है !! जब साथ हो जाती है तो नयी दुनिया बना लेती है !! मैं इन्ही शब्दों का शब्दकार हु , शब्दों से खेलना मेरी आदत , शब्दों में जीना मेरी हसरत !! जुडये मेरे साथ , कुछ सुनिए कुछ सुनाइए , एक दुसरे का हौसला बढाइये||
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
मंजिलो में चलते चलते कुछ राह बदल जातें हैं शुरुआत कहाँ होती है ये ख्तम कहीं होते है .... अक्सर राहो में चलते चलते हमराह बदल जातें है एक मोड़...
-
Sukun on my voice on youtube: http://youtu.be/TZSV1CnoRkY रात की मिट्टी को उठा कर हाथ से रगड़ रहा था , की शायद उनकी तन्हाई की...
-
किसी के इश्क की इम्तिहा न ले कोई किसी के सब्र की इंतिहा न हो जाए प्यार मर न जाए प्यासा यु ही और आंशुओ के सैलाब में ज़िन्दगी न बह जाये … ...
'ये जिन्दगी कभी एक
ReplyDeleteमृग कस्तूरी सी लगती है '
कितनी लाजवाब पंक्ति है .....पूरी रचना अच्छी लगी |
... bahut khoob !!
ReplyDeleteसोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !
ReplyDeleteआपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना लिखी है राहुल जी - हार्दिक बधाई
ReplyDelete