याद नहीं कब
बस्ते से निकाल के
दिल को हवा में उछाला था ,
तन्हा दीवारों को खुरच कर
किसी का नाम उसके सीने पे
दाग डाला था ।।
चिलमिलाती धुप से
नज़रे मिलाने को बेताब थी आँखे
सूरज के आँखों में आँख डाल कर
उसकी रौशनी चुराने को
बेक़रार थी आँखे ।।
कुरते के बाहों को समेट कर
उसमे ज़माने को दबाना चाहते थे
दिल की आवाज को पानी में घोल
लहू में मिलाना चाहते थे ।।
वो पन्ने समय के कदमो में उलझ
किसी की कुर्बानी हो गए
और वो फ़साने आँखों के समुन्दर में
डूब, पानी पानी हो गए ।।
लगता है कोयले से उधर ले के कालिख
किसी ने मेरे सपनो को , कर दिया काला था
अब याद नहीं कब, बस्ते से निकाल के
दिल को..... हवा में उछाला था ।।
बस्ते से निकाल के
दिल को हवा में उछाला था ,
तन्हा दीवारों को खुरच कर
किसी का नाम उसके सीने पे
दाग डाला था ।।
चिलमिलाती धुप से
नज़रे मिलाने को बेताब थी आँखे
सूरज के आँखों में आँख डाल कर
उसकी रौशनी चुराने को
बेक़रार थी आँखे ।।
कुरते के बाहों को समेट कर
उसमे ज़माने को दबाना चाहते थे
दिल की आवाज को पानी में घोल
लहू में मिलाना चाहते थे ।।
वो पन्ने समय के कदमो में उलझ
किसी की कुर्बानी हो गए
और वो फ़साने आँखों के समुन्दर में
डूब, पानी पानी हो गए ।।
लगता है कोयले से उधर ले के कालिख
किसी ने मेरे सपनो को , कर दिया काला था
अब याद नहीं कब, बस्ते से निकाल के
दिल को..... हवा में उछाला था ।।
उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteकुछ दिनों से अधिक व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर आने में देरी के लिए क्षमा चाहता हूँ
निर्लिप्त भाव से रची गई सुन्दर रचना!
ReplyDeleteकमोबेश सभी के साथ होता है यह...इसलिए किताबों के समय में यानि पढ़ते वक्त दिल को संभालना बहुत जरूरी है...सम्पर्क कीजिए...
ReplyDeleteveena.rajshiv@gmail.com
"याद नहीं कब
ReplyDeleteबस्ते से निकाल के
दिल को हवा में उछाला था ,
तन्हा दीवारों को खुरच कर
किसी का नाम उसके सीने पे
दाग डाला था।।"
वाह - अति सुंदर
bahut khoob....
ReplyDeleteअब याद नहीं कब, बस्ते से निकाल के
दिल को..... हवा में उछाला था ।।
http://ehsaasmere.blogspot.in/