Sukun on my voice on youtube:
http://youtu.be/TZSV1CnoRkY
रात की मिट्टी को
उठा कर
हाथ से रगड़ रहा था , की शायद
उनकी तन्हाई की आदत
हमे भी लग जाये ।
पर बेवफा वो, शहर की मिटटी
उनको अकेले रहने की आदत नहीं थी
रात भर दौड़ते अंधेरो के साथ
उनको भी भीड़ की चाहत जो लग गयी थी
मैं क्या करता , उठा वहाँ से
चल पड़ा कही और, सुकून की तलाश में
रास्तो के सीने में बने "divider"
उसपे खड़े स्तम्भ पे
लाल , पिली बातिया
वेबजह ही रंग बदल रही थी
शायद , उन्हें भी शहर की आदत जो लग गयी थी ॥
वही रास्तो के किनारों पे
कुछ लाश जैसे दिखते शरीर
चैन से सो रहे थे
दो चार गुजरती गाडियों में
उधर ही
कुछ रात के मुसाफिर
बेचैन दिख रहे थे ॥
मैं भी वही पास
बैठ कर, सोचा की यही लेट जाऊ
उनकी फटी कम्बल से उधार ले कर
मुझे भी कुछ नीद हासिल हो जाए
पर आँख बंद करते ही रूह काँपी
की कही ये रात के मुसफ़िर
फिर खफा न हो जाएँ ,
और उनकी गाडी के नीचे मेरा सुकून न आ गए
मैं चल पड़ा फिर कोई और जगह की तलाश में
की सुकून शायद आज मुझे हासिल न था
ये शहर हँस रहा था मुझपे
जैसे की मैं उसके काबिल न था ॥
शहर की ज़िंदगी का चित्रण .... बेहतरीन
ReplyDeleteबड़े दिनों की अधीर प्रतीक्षा के बाद आज आपका आगमन हुआ है
ReplyDeleteमुझे भी कुछ नीद हासिल हो जाए
पर आँख बंद करते ही रूह काँपी
की कही ये रात के मुसफ़िर
फिर खफा न हो जाएँ ,
और उनकी गाडी के नीचे मेरा सुकून न आ गए
...........वाह क्या बात कही है ... आपने इन पंक्तियों में अनुपम भाव लिये उत्कृष्ट अभिव्यक्ति
ये शहर हँस रहा था मुझपे
ReplyDeleteजैसे की मैं उसके काबिल न था ......touching...
गहरे भाव संजोये, अति संवेदनशील रचना
ReplyDeleteमैं क्या करता , उठा वहाँ से
ReplyDeleteचल पड़ा कही और, सुकून की तलाश में
रास्तो के सीने में बने "divider"
उसपे खड़े स्तम्भ पे
लाल , पिली बातिया
वेबजह ही रंग बदल रही थी
शायद , उन्हें भी शहर की आदत जो लग गयी थी ॥
...बहुत खूब!
Superb lines....... visit me on "aditishuklarocks.blogspot.in"
ReplyDeleteसुंदर..संवेदनशील रचना।।।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति प्रवीणजी...नदी, समंदर और चांद जैसे प्राकृतिक शिक्षकों के जरिये आपने जो पाठ पढ़ाया है वह अनुकरणीय है...उत्कृष्ट।।।
ReplyDeleteसुंदर भाव अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteमधुर आवाज़ ! बधाई !