Sunday, August 29, 2010

इन शहरो में

कुछ सीलन सी है
मेरे घर के दीवारों में
बारिस की कुछ बुँदे
मेरे घर रहने आ गयी है
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लगता है इनका मन
ज़मी पे लगता नहीं
की हरयाली शायद
ज़मी को छोड़ के
आजकल इमारतो के
छज्जो में समां गयी है
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ठंडी हवाए बहती नहीं रास्तो पे
पंख खोलने  को जगह नहीं है
मकानों के अन्दर ही बसेरा है इनका
बंद रहना आजकल सजा नहीं है
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1 comment:

  1. pahli baar aap ke blog par anaa huaa aur achha laga...bahut sundar rachana

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