Thursday, June 09, 2005

इन्साफ कैसा

तुम हमारे बिन वहा  जी रही हो
हम तुम्हारे बिन , कहा जी रहे है
खुश हो तुम वहा , आपनो की बाहो मे
हम यहा गैर होने का, ज़हर पी रहे है
...
प्यार करने के सजा , क्यू अलग अलग हुई है
तुम्हारी ज़िंदगी खुशी , हर तरफ खिली हुई है
हमे  तो मिलने, दो चार खुशिया  भी नही आती
आपकी बेवफ़ाई की सजा  , हमें  क्यू मिली है
....
इस कदर सिर्फ़ हम ही मजबूर क्यू है
क्यू तन्हा सिर्फ़ हम ही क्यू रह गये है
आपके मौसम मे बसंत ही बसंत है
हमरे किस्मत मे पतझड़  ही क्यू छा गये है
....
ये कैसा इंसाफ़ है आए खुदा
की हम बेक़ुसूर हो कर भी बार बार रोए
जिसने तोड़ दिए सारे वादे एक पल मे
उन्हे छोर  कर मेरे राहो मे काटे बोए

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